सातों आसमान को चीरती हुई,
स्वेत घनों को बेघती हुई,
सुन्दर-मनमोहक उस उपत्यका को
उद्योत कर दी दिवाकर ने|
पंछियों के मधुर आलापन से,
त्वरित निर्झरों के हिल्लोल से,
मधु में तरित अली के गुंजन से,
महक उठा समा, बहुवर्णी पुष्पों के महक से|
अचानक, यह प्रकंपन कैसी?
कैसे उठे यह सारा धूल?
खामोश, बदमस्त समा को द्वस्त करती,
कौन है जो बढ रहा- शीत्कार मचाता?
पलक मारते ही यह अंधकार कैसी?
जैसे रवि को कोई निगल गया हो -
रुई सी कोमल, स्वेत-घनों को,
जैसे जला कोई छार बना दी हो|
अन्धकारमय नभतल में,
हुडदंग मच गयी, क्षणभर में|
अन्तरंग में विद्वंस मचाते,
मानो छिड गया रण - धरा और नभ में|
वज्रप्रहार अम्बर ने की -
वसुंधरा भी चुप न रही,
आक्रोशित हो वह गरज उठी|
देख यह लीला, त्रिलोक कंपकंपा बैठी|
सांघातिक खेल यह सह न सकी -
पयोद, हाय! फूट-फूट रोने लगी,
रोषित धरा, अचानक शांत सी दीख पड़ी,
आँसुवों से जलद की, मानो दिल उसकी पिघल उठी|
देखकर चुप धरित्री को,
आकाश भी रंग बदलने लगी,
लौटने लगा वह अपने वाहिनी संग,
भरकर फिर से अवनी में हर्ष-मयूख|
नभचर वापस सुचारू हुए,
नीरद में वो खो जाने लगे,
कृतज्ञता से भरे आवाज़ में,
मधुर क्रन्दनाद अपने सुनाने लगे|
दीप्तवान हुए फिर से मही,
भानु के पुनरागमन से -
चमकने लगी हर एक तृण-फूल जगत के,
अश्रु-जलद बैठ उनपर मुस्कुराने लगे|
न जाने प्रकृति की कैसी यह लीला,
सोच-सोच, हैरान मैं हो जाऊं|
पूछती हुं सहस्रों बार नभ से - वह नीला,
गुथी फिर भी मैं सुलझ न पाऊँ|
Written on November 11, 1998
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