Art by Ambs

December 16, 2009

जीते है क्यों हम मौत की नींद में सो जाने?

आंसुओं का गाढ़ा समुन्दर खोदकर, 
यादों का अनंद बस बादल छोड़कर,
चलते है लोग, अपनों को छोड़कर|

है विधाता की यह खेल पुरानी,
बुलाना किसी को भी अपनी मनमानी;
जीवन बनता है फिर एक बस अमर कहानी|

अजीब सा है, पूरा यह जीवन-चक्र,
जन्म लेते है लोग, मर फिर जाते है,
नहीं होता पूरी दुनिया में फिर, उनका कभी ज़िक्र|

दिल की खामोशियों में डुबकियां लूं तो,
सवाल एक बस उठता है बार-बार,
जीते है क्यों हम, मुश्किलें सब तानकर,
एक है सबका जब अंतिम-राह|

मौत का आवरण अपनों में बसाने,
ज़िन्दगी से हमेशा से चेहरा छुपाने,
अपनों के दिल में दर्द का दरिया बहाने,
उनके सपनों का दमक सब चूर- चूर कराने,
जीते है क्यों हम, मौत की नींद में सो जाने?

Written in 2000

No comments: